भारतीय कानूनों के अनुसार, सभी खून देने वालों की और दिए गए खून की एचआईवी, हेपेटाइटिस बी और सी, मलेरिया और सिफलिस द्वारा प्रसारित होने वाले संक्रमणों के लिये जाँच की जानी चाहिए।
दुनिया भर में कहीं पर भी चढ़ाए गए खून को 100% सुरक्षित नहीं माना जाता। अधिकतर मामलों में खून आसानी से और सुरक्षा के साथ चढ़ाया जाता है लेकिन कुछ छोटी-मोटी समस्याएँ, और अत्यंत कम मामलों में, गंभीर समस्याएँ हो सकती हैं। खून चढ़ाने के दौरान एचआईवी से संक्रमित होने या एलर्जिक प्रतिक्रिया होने का खतरा रहता है। ऐसा तब होता है, जब खून चढ़ाने के पहले अन्य चीजों के साथ, खून की प्रत्येक यूनिट की जाँच अनिवार्य रूप से की जाती है।
विंडो पीरियड(विकास अवधि)
यह एचआईवी संक्रमण की चपेट में आने और जाँच द्वारा इसका सटीक निर्णय देने के बीच का समय है। विकास अवधि के दौरान व्यक्ति एचआईवी से संक्रमित हो सकता है और संक्रामक रह सकता है, किन्तु उसकी एचआईवी जाँच का परिणाम नकारात्मक होता है। इसलिए, यदि व्यक्ति आज एचआईवी की चपेट में आए और अगले दिन रक्तदान करने का निर्णय ले, तो जाँच करने वाली प्रयोगशाला खून में मौजूद वायरस को नहीं खोज पाएगी। प्रयोगशाला में उपयोग की जाने वाली तकनीक के आधार पर एचआईवी की विकास अवधि आमतौर पर तीन सप्ताह से लेकर तीन माह तक की होती है।
यहाँ तक कि बाजार में उपलब्ध सर्वोत्तम तकनीक – न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट – विकास अवधि को केवल सात दिनों तक घटा सकती है। यह खतरे को पूरी तरह दूर नहीं करती।
इस सीमा के बावजूद, कई देशों ने सालों से खून चढ़ाने के कारण एचआईवी संक्रमण का कोई भी मामला दर्ज नहीं किया है। दूसरी तरफ भारत में, पिछले 17 माह में खून चढ़ाने के दौरान कम से कम 2,234 लोगों का एचआईवी से संक्रमित होना दर्ज किया गया है। नेशनल एड्स कण्ट्रोल आर्गेनाईजेशन ने बुधवार को इसके आंकड़े दर्शाए जिसमें उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 361, गुजरात में 292, महाराष्ट्र में 276 और नई दिल्ली में 264 ऐसे मामले दर्ज किये गए।
भारत में, रक्तदान की 0.2% यूनिट्स में एचआईवी पाया गया है। इन्हें तब चढ़ाने के लिए नहीं भेजा गया। इसलिए संक्रमित खून परीक्षण के दौरान संभवतः विकास अवधि में रहा होगा और फिर इसे चढ़ा दिया गया होगा जिससे स्वस्थ व्यक्ति संक्रमित हो गया।
वर्तमान में देश के अधिकतर ब्लड बैंक अन्य संक्रमणों में से एचआईवी और हेपेटाइटिस बी और सी की जाँच के लिए एंजाइम-लिंक्ड इम्मुनोसोर्बेंट एसे या ईएलआईएसए (एलिसा) का प्रयोग करते हैं। यह तकनीक सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स कण्ट्रोल आर्गेनाईजेशन द्वारा निर्धारित की गई है।
कीमत का प्रभाव:
नेशनल एड्स कण्ट्रोल आर्गेनाईजेशन की वर्तमान नीति के कारण संपूर्ण रक्त की यूनिट का मूल्य सरकारी संस्थान में 1,050 रु और निजी संस्थान में 1,450 रु है। न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट विकास अवधि को लगभग सात दिनों तक तो ले आता है, लेकिन यह रक्त की यूनिट का मूल्य बढ़ाकर 2000 से 2500 रु तक कर देता है।
नाको की हालिया वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में भारत में 21 लाख से अधिक एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति थे, जिनमें से 40.5 प्रतिशत महिलाएँ और 6.54 प्रतिशत व्यक्ति 15 वर्ष की आयु के भीतर के थे। 2007 में यह आँकड़ा 22 लाख संक्रमित व्यक्तियों से कम था। अनुमान के अनुसार देश ने 86,000 से अधिक नए मामले दर्ज किये।
रोगियों को परामर्श:
भारत में खून चढ़ाने के पहले रोगी को किसी प्रकार का परामर्श नहीं दिया जाता। रक्त देने के पहले रोगियों की भली प्रकार जाँच नहीं की जाती। बल्कि वे तो अपने फॉर्म तक नहीं भरते जिसमें अन्य बातों के अलावा हालिया बीमारी और असुरक्षित यौन कार्य सम्बन्धी प्रश्न किये जाते हैं। खून में एचआईवी की जाँच या खोज के लिए अधिक आधुनिक जांचें करने में सरकार को अधिक तत्परता दिखानी चाहिए।
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